ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 21
इस प्रकार कहकर शोक से संतप्त हुई तुलसी आँखों से आँसू गिराती हुई बार-बार विलाप करने लगी। तदनन्तर करुण-रस के समुद्र कमलापति भगवान श्रीहरि करुणायुक्त तुलसी देवी को देखकर नीति पूर्वक वचनों से उसे समझाने लगे। भगवान श्रीहरि बोले- भद्रे! तुम मेरे लिये भारतवर्ष में रहकर बहुत दिनों तक तपस्या कर चुकी हो। उस समय तुम्हारे लिये शंखचूड़ भी तपस्या कर रहा था। (वह मेरा ही अंश था।) अपनी तपस्या के फल से तुम्हे स्त्री रूप में प्राप्त करके वह गोलोक में चला गया। अब मैं तुम्हारी तपस्या का फल देना उचित समझता हूँ। तुम इस शरीर का त्याग करके दिव्य देह धारण कर मेरे साथ आनन्द करो। लक्ष्मी के समान तुम्हें सदा मेरे साथ रहना चाहिये। तुम्हारा यह शरीर नदी रूप में परिणत हो ‘गण्डकी’ नाम से प्रसिद्ध होगा। यह पवित्र नदी पुण्यमय भारतवर्ष में मनुष्यों को उत्तम पुण्य देने वाली बनेगी। तुम्हारे केशकलाप पवित्र वृक्ष होंगे। तुम्हारे केश से उत्पन्न होने के कारण तुलसी के नाम से ही उनकी प्रसिद्धि होगी। वरानने! तीनों लोकों में देवताओं की पूजा के काम में आने वाले जितने भी पत्र और पुष्प हैं, उन सब में तुलसी प्रधान मानी जायेगी। स्वर्गलोक, मर्त्यलोक, पाताल तथा वैकुण्ठ-लोक में- सर्वत्र तुम मेरे संनिकट रहोगी। सुन्दरि! तुलसी के वृक्ष सब पुष्पों में श्रेष्ठ हों। गोलोक, विरजा नदी के तट, रासमण्डल, वृन्दावन, भूलोक, भाण्डीरवन, चम्पकवन, मनोहर चन्दनवन एवं माधवी, केतकी, कुन्द और मल्लिका के वन में तथा सभी पुण्य स्थानों में तुम्हारे पुण्यप्रद वृक्ष उत्पन्न हों और रहें। तुलसी-वृक्ष के नीचे के स्थान परम पवित्र एवं पुण्यदायक होंगे; अतएव वहाँ सम्पूर्ण तीर्थों और समस्त देवताओं का भी अधिष्ठान होगा। वरानने! ऊपर तुलसी के पत्ते पड़ें, इसी उद्देश्य से वे सब लोग वहाँ रहेंगे। तुलसी पत्र के जल से जिसका अभिषेक हो गया, उसे समपूर्ण तीर्थों में स्नान करने तथा समस्त यज्ञों में दीक्षित होने का फल मिल गया। साध्वी! हजारों घड़े अमृत से नहलाने पर भी भगवान श्रीहरि को उतनी तृप्ति नहीं होती है, जितनी वे मनुष्यों के तुलसी का एक पत्ता चढ़ाने से प्राप्त करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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