ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 1
जिनसे प्रकृति, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि का आविर्भाव हुआ है, उन त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा अच्युत श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ।
परमपुरुष नारायण, नरश्रेष्ठ नर, इनकी लीलाओं को प्रकट करने वाली देवी सरस्वती तथा उन लीलाओं का गान करने वाले वेदव्यास को नमस्कार करके फिर जय का उच्चारण (इतिहास-पुराण का पाठ) करना चाहिये। भारतवर्ष के नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि ऋषि प्रातःकाल नित्य और नैमित्तिक क्रियाओं का अनुष्ठान करके कुशासन पर बैठे हुए थे। इसी समय सूतपुत्र उग्रश्रवा अकस्मात वहाँ आ पहुँचे। आकर उन्होंने विनीत भाव से मुनियों के चरणों में प्रणाम किया। उन्हें आया देख ऋषियों ने बैठने के लिये आसन दिया। मुनिवर शौनक ने भक्तिभाव से उन नवागत अतिथि का भलीभाँति पूजन करके प्रसन्नतापूर्वक उनका कुशल-समाचार पूछा। शौनक जी शम आदि गुणों से सम्पन्न थे, पौराणिक सूत जी भी शान्त चित्त वाले महात्मा थे। अब वे रास्ते की थकावट से छूटकर सुस्थिर आसन पर आराम से बैठे थे। उनके मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। उन्हें पुराणों के सम्पूर्ण तत्त्व का ज्ञान था। शौनक जी भी पुराण-विद्या के ज्ञाता थे। वे मुनियों की उस सभा में विनीत भाव से बैठे थे और आकाश में ताराओं के बीच चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे। उन्होंने परम विनीत सूत जी से एक ऐसे पुराण के विषय में प्रश्न किया, जो परम उत्तम, श्रीकृष्ण की कथा से युक्त, सुनने में सुन्दर एवं सुखद, मंगलमय, मंगलयोग्य तथा सर्वदा मंगलधाम हो, जिसमें सम्पूर्ण मंगलों का बीज निहित हो; जो सदा मंगलदायक, सम्पूर्ण अमंगलों का विनाशक, समस्त सम्पत्तियों की प्राप्ति कराने वाला, और श्रेष्ठ हो; जो हरि भक्ति प्रदान करने वाला, नित्य परमानन्ददायक, मोक्षदाता, तत्त्वज्ञान की प्राप्ति कराने वाला तथा स्त्री-पुत्र एवं पौत्रों की वृद्धि करने वाला हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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