ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 3
सरस्वती बोलीं - ‘जो रासमण्डल के मध्यभाग में विराजमान हैं, रासोल्लास के लिये सदा उत्सुक रहने वाले हैं, रत्नसिंहासन पर आसीन हैं, रत्नमय आभूषणों से विभूषित हैं, रासेश्वर एवं श्रेष्ठ रासकर्ता हैं, रासेश्वर राधा के प्राणवल्लभ हैं, रास के अधिष्ठाता देवता हैं तथा रासलीला द्वारा मनोविनोद करने वाले हैं, उन भगवान गोविन्द की मैं वन्दना करती हूँ। जो रासलीला जनित श्रम से थक गये हैं, प्रत्येक रास में विहार करने वाले हैं तथा रास के लिये उत्कण्ठित हुई गोपियों के प्राणवल्लभ हैं, उन शान्त मनोहर श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करती हूँ।’ यों कहकर प्रसन्न मुखवाली सती सरस्वती ने भगवान को प्रणाम किया और सफलमनोरथ हो उनकी आज्ञा से वे श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठीं। जो प्रातःकाल उठकर वाणी द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह सदा बुद्धिमान, धनवान, विद्वान और पुत्रवान होता है। सौति कहते हैं – तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के मन से एक गौरवर्णा देवी प्रकट हुईं, जो रत्नमय अलंकारों से अलंकृत थीं। उनके श्रीअंगों पर पीताम्बर की साड़ी शोभा पा रही थी। मुख पर मन्द हास्य की छटा छा रही थी। वे नवयौवना देवी सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री थीं। वे ही फलरूप से सम्पूर्ण सम्पत्तियाँ प्रदान करती हैं। स्वर्गलोक में उन्हीं को स्वर्ग लक्ष्मी कहते हैं तथा राजाओं के यहाँ वे ही राजलक्ष्मी कहलाती हैं। श्रीहरि के सामने खड़ी होकर उन साध्वी लक्ष्मी ने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया। उनकी ग्रीवा भक्ति भाव से झुक गयी और उन्होंने उन परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण का स्तवन किया। महालक्ष्मी बोलीं - ‘जो सत्यस्वरूप, सत्य के स्वामी और सत्य के बीज हैं, सत्य के आधार, सत्य के ज्ञाता तथा सत्य के मूल हैं, उन सनातन देव श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करती हूँ। यों कह श्रीहरि को मस्तक नवाकर तपाये हुए सुवर्ण की-सी कान्तिवाली लक्ष्मी-देवी दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई सुखासन पर बैठ गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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