ब्रह्म वैवर्त पुराण
ब्रह्मखण्ड : अध्याय 3
ब्रह्मा जी बोले – जो तीनों गुणों से अतीत और एकमात्र अविनाशी परमेश्वर हैं, जिनमें कभी कोई विकार नहीं होता, जो अव्यक्त और व्यक्तरूप हैं तथा गोप-वेष धारण करते हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। जिनकी नित्य किशोरावस्था है, जो सदा शान्त रहते हैं, जिनका सौन्दर्य करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है तथा जो नूतन जलधर के समान श्याम वर्ण हैं, उन परम मनोहर गोपी वल्लभ को मैं प्रणाम करता हूँ। जो वृन्दावन के भीतर रासमण्डल में विराजमान होते हैं, रासलीला में जिनका निवास है तथा जो रासजनित उल्लास के लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन रासेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।[1] ऐसा कहकर ब्रह्मा जी ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से नारायण तथा महादेव जी के साथ सम्भाषण करते हुए श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठे। जो प्रातःकाल उठकर ब्रह्मा जी के द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और बुरे सपने अच्छे सपनों में बदल जाते हैं। भगवान गोविन्द में भक्ति होती है, जो पुत्रों और पौत्रों की वृद्धि करने वाली है। इस स्तोत्र का पाठ करने से अपयश नष्ट होता है और चिरकाल तक सुयश बढ़ता रहता है। सौति कहते हैं – तत्पश्चात् परमात्मा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल से कोई एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसके मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। उसकी अंगकान्ति श्वेत वर्ण की थी और उसने अपने मस्तक पर जटा धारण कर रखी थी। वह सबका साक्षी, सर्वज्ञ तथा सबके समस्त कर्मों का द्रष्टा था। उसका सर्वत्र समभाव था। उसके हृदय में सबके प्रति दया भरी थी। वह हिंसा और क्रोध से सर्वथा अछूता था। उसे धर्म का ज्ञान था। वह धर्म स्वरूप, धर्मिष्ठ तथा धर्म प्रदान करने वाला था। वही धर्मात्माओं में ‘धर्म’ नाम से विख्यात है। परमात्मा श्रीकृष्ण की कला से उसका प्रादुर्भाव हुआ है, श्रीकृष्ण के सामने खड़े हुए उस पुरुष ने पृथ्वी पर दण्ड की भाँति पड़कर प्रणाम किया और सम्पूर्ण कामनाओं के दाता उन सर्वेश्वर परमात्मा का स्तवन आरम्भ किया। धर्म बोले – जो सबको अपनी ओर आकृष्ट करने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, इसलिये ‘कृष्ण’ कहलाते हैं, सर्वव्यापी होने के कारण जिनकी ‘विष्णु’ संज्ञा है, सबके भीतर निवास करने से जिनका नाम ‘वासुदेव’ है, जो ‘परमात्मा’ एवं ‘ईश्वर’ हैं, ‘गोविन्द’, ‘परमानन्द’, ‘एक’, ‘अक्षर’, ‘अच्युत’, ‘गोपेश्वर’, ‘गोपीश्वर’, ‘गोप’, ‘गोरक्षक’, ‘विभु’, ‘गौओं के स्वामी’, ‘गोष्ठ निवासी’, ‘गोवत्स-पुच्छधारी’, ‘गोपों और गोपियों के मध्य विराजमान’, ‘प्रधान’, ‘पुरुषोत्तम’, ‘नवघनश्याम’, ‘रासवास’, और ‘मनोहर’, आदि नाम धारण करते हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कृष्णं वन्दे गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम्। अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम्।।
किशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम्। नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम्।।
वृन्दावनवनाभ्यर्णे रासमण्डलसंस्थितम्। रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम्।।-(ब्रह्मखण्ड 3। 35-37)
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