ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 35-37
वरदाता शंकर के वर से जब निर्मल ज्ञान और भगवद्भक्ति की प्राप्ति हो जाती है, तब मनुष्य परात्पर निवृत्तिभाव को प्राप्त हो जाता है। जिस शरीर में उसे श्रीकृष्ण-मन्त्र की प्राप्ति होती है, वह शरीर जब तक टिका रहता है, तभी तक उसे भारतवर्ष में रहना पड़ता है। उस पांचभौतिक शरीर को त्याग देने के पश्चात् वह दिव्य रूप धारण कर लेता है और श्रीहरि के गोलोक या वैकुण्ठधाम में उनका पार्षद बनकर उनकी सेवा करता है। वह परमानन्द से सम्पन्न तथा मोह आदि से रहित हो जाता है। इस प्राकृत जगत में पुनः उसका आगमन नहीं होता। उसे पुनः माता का स्तन नहीं पीना पड़ता। जो विष्णु मन्त्र के उपासक गंगा नदी आदि तीर्थों का सेवन करने वाले तथा स्वधर्मपरायण भिक्षु हैं, उनका फिर जन्म नहीं होता। तीर्थ में पाप का सर्वथा परित्याग करे और पुण्यकर्म का अनुष्ठान करते हुए श्रीहरि का भजन करे। विधाता ने तीर्थ सेवी पुरुषों का यही धर्म बताया है। भगवान विष्णु के नाम-मन्त्र का जप करे, उन्हीं की सेवा आदि में तत्पर रहे तथा उन्हीं के व्रत एवं उपवास में संलग्न रहे। यह विष्णु सेवी पुरुषों का धर्म बताया गया है। जो सदन्न या कदन्न में[1], मिट्टी के ढेले और सुवर्ण में सदा समभाव रखता है, वह संन्यासी कहा गया है। जो दण्ड, कमण्डलु तथा गेरुआ वस्त्र मात्र धारण करे, प्रतिदिन प्रवास में रहे और एक स्थान पर अधिक दिनों तक निवास न करे, उसे संन्यासी कहा गया है। जो लाभ आदि से रहित होकर सदाचारी द्विजों का दिया हुआ अन्न खाता है, किंतु किसी से याचना नहीं करता, वह संन्यासी कहा गया है। जो व्यापार न करे, आश्रम बनाकर न रहे, समस्त वैदिक कर्मों से विलग रहे तथा निरन्तर नारायण का ध्यान करे, उसे सच्चा संन्यासी कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उत्तम या निकृष्ट श्रेणी के अन्न में
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