ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 35-37
जो सम्पत्ति से प्रमत्त हो गया है, उसे मदिरा से मत्त हुआ समझना चाहिये। उसे बान्धवजन घेरे रहते हैं; परंतु वह बन्धुजनों से द्वेष रखता है। वैभवमत्त, विषयान्ध, विह्वल, महाकामी और राजसिक व्यक्ति में सत्त्वमार्ग का अवलोकन करने की योग्यता नहीं रह जाती। विषयान्ध दो प्रकार के बताये गये हैं– राजस और तामस। जिसमें शास्त्र का ज्ञान नहीं है, वह तामस कहलाता है और शास्त्रज्ञ राजस। मुनिश्रेष्ठ! शास्त्र दो प्रकार के मार्ग दिखलाते हैं– एक प्रवृत्ति-बीज और दूसरा निवृत्ति-बीज। पहला जो प्रवृत्ति मार्ग है, वह दुःख का रास्ता है, परंतु जीव क्लेश में ही सुख मानकर पहले उसी पर चलते हैं। वह मार्ग स्वच्छन्द, प्रसन्नतापूर्ण, विरोधशून्य एवं आपात-मधुर होने पर भी परिणाम में नाश का बीज तथा जन्म-मृत्यु और जरा के चक्कर में डालने वाला है। जीव अनेक जन्मों तक अपने विहित कर्म के परिणामस्वरूप नाना प्रकार की योनियों में क्रमशः भ्रमण करने के पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से मानव होकर सत्संग का सुअवसर प्राप्त करता है। सैकड़ों और सहस्रों पुरुषों में कोई विरला ही साधु पुरुष भवसागर से पार उतरने में कारण बनता है। इन्द्र की बात सुनकर ज्ञानियों के गुरु सनातन मुनि दुर्वासा जोर-जोर से हँस पड़े और अत्यन्त संतुष्ट होकर इन्द्र को ज्ञान का उपदेश देने लगे। मुनि बोले– अहो महेन्द्र! यह बड़े मंगल की बात है कि तुम अभीष्ट[2] मार्ग का साक्षात्कार करना चाहते हो। यह पहले तो दुःख का कारण जान पड़ता है; परंतु परिणाम में सुख देने वाला है। जीव को जो गर्भ की यातना तथा मृत्युकष्ट सहन करने पड़ते हैं, उन सबका खण्डन करने वाला यह ज्ञान बताया जा रहा है। जिससे पार पाना कठिन है, उस दुर्वार एवं असार संसार-पारावार से उद्धार करने वाला यह ज्ञान ही है। इससे कर्मरूपी वृक्ष के अंकुर का उच्छेद हो जाता है। यह सबका उद्धार करने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |