ब्रज मैं संभ्रम मोहिं भयौ।
तुम्हरी ज्ञान सँदेसौ प्रभु जू, सबै जु भूलि गयौ।।
तुमही सौ बालक किसोर बपु, मैं घर घर प्रति देख्यौ।
मुरलीधर घन स्याम मनोहर, अद्भुत नटवर पेख्यौ।।
कौतुक रूप ग्वाल वृंदनि सँग, गाइ चरावन जात।
साँझ प्रभातहि गो दोहन मिस, चोरी माखन खात।।
नँदनंदन अनेक लीला करि, गोपिनि चित चुरावत।
वह सुख देखि जु नैन हमारे, ब्रह्म न देख्यौ भावत।।
करि करुना उन दरसन दीन्हौ, मैं पचि जोग बह्यौ।
छन मानहु षट्मास ‘सूर’ प्रभु, देखत भूलि रह्यौ।।4152।।