ब्रज मैं दोउ बिधि हानि भई -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


ब्रज मैं दोउ बिधि हानि भई।
इक हरि गए कलपतरु, दूजे उपजो बिरह जई।
जैसै हाटक लै रसाइनी, पारहि आगि दई।
जब मन लग्यो दृष्टि तब बोल्यौ, सीसी फूटि गई।।
जैसै बिनु मल्लाह सुंदरी, एक नाउ चढ़ई।
बूड़त देह थाह नहि चितवत, मिलनहु पति न दई।।
लरि मरि झगरि भूमि कछु पाई, जस अपजस बितई।
अब लै ‘सूर’ कहति है उपजी, सब ककरी करुई।। 3296।।

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