इक आपु आपुहीं माहिं, हँसि-हँसि मोद भरैं।
इक अभरन लेहिं उतारि, देत न संक करैं।
इक दघि-गोरोचन-दूब, सबकैं सीस धरैं।
तब न्हाइ नंद भए ठाढ़, अरु कुस हाथ धरे।
नांदीमुख पिंतर पुजाइ, अंतर सोच हरे।
धसि चंदन चारु मँगाइ, बिप्रनि तिलक करे।
द्विज-गुरु-जन कौं पहिराइ, सब कैं पाइ परे।
तहँ गैयाँ गनी न जाहिं, तरुनी बच्छ बढ़ीं।
जे चरहिं जमुन के तीर, दूनैं दूध चढ़ीं।
खुर ताँबैं, रूपैं पोठि सोनैं सींन मढ़ीं।
ते दीन्हीं द्विजनि अनेक, हरषि असीस पढ़ीं।
सब इष्ट मित्र अरु बंधु हँसि हँसि बोलि लिये।
मथि मृगमद-मलय-कपूर, माथैं तिलक किये।
उर मनि-माला पहिराइ, बसन, विचित्र दिये।
दै दान-मान-परिधान, पूरन-काम किये।
बंदोजन-मागध-सूत आँगन-भौन भरे।
ने बोले लै-लै नाउँ, नहिं हित कोउ विसरे।
मनु बरषत मास असाढ़, दादुर-मोर ररे।
जिन जो जाँच्यौ सोइ दीन, अस नँदराइ ढरे।
तब अंबर और मँगाइ, सारी सुरँग चुनी।
ते दीनी बधुनि बुलाइ, जैसी जाहि बनी।
ते निकसीं देति असीस, रुचि अपनी-अपनी।
बहुरीं सब अति आनंद, निज गृह गोप-धनी।
पुर घर-घर भेरि-मृदंग, पटह-निसान बजे।
बर बारिनि बंदनबार, कंचन कलस सजे।
ता दिन तैं वै ब्रज लोग, सुख-संपति न तजे।
सुनि सबकी गति यह सूर, जे हरि-चरन भजे॥24॥