सुनहु सखी राधा की बानी।
ब्रज बसि हरि देखे नहिं कबहूँ, लोग कहत कछु अकथ कहानी।।
यह अब कहति दिखावहु हरिकौं, देखहु रो यह अचिरज मानी।
जो हम सुनति रहीं सो नाहीं ऐसैं ही यह वायु बहानी।।
ज्वाब न देत बनै काहू सौं, मन मैं यह काहू नहिं मानी।
सूर सबै तरुनी मुख चाहतिं, चतुर चतुर सौं चतुराई ठानी।।1737।।