ब्रज घर-घर सब भोजन साजत। सबकैं द्वार बधाई बाजत।।
सकट जोरि लै चले देव-बलि। गोकुल ब्रजवासी सब हिलि मिलि।।
दधि लवनी मधु साजि मिठाई। कहँ लगि कहौं सबै बहुताई।।
घर-घर तैं पकवान चलाए। निकसि गाउँ के ग्वैडें आए।।
ब्रजबासी कहं जुरे अपारा। सिंधु समान न वार न पारा।।
बड़ा चलन नहीं कोउ पावत। सकट भरे सब भोजन आवत।।
सहस सकट चले नंद महर के। और सकट कितने घर-घर
सूरदास प्रभु महिमा-सागर। गोकुल प्रगटे हैं हरि नागर।।901।।