ब्रज के लोग उठे अकुलाइ।
ज्वाला देखि अकास बराबरि, दसहुँ दिसा कहुँ पार न पाइ।
झरहरात बन-पात, गिरत तरु, धरनी तरकि तराकि सुनाइ।
जल बरषत गिरिवर-तर बाँचे, अब कैसैं गिरि होत सहाइ।
लटकि जात जरि-जरि द्रुम-बेली, पटकत बाँस, काँस, कुस, ताल।
उचटत भरि अंगार गगन लौं, सूर निरखि ब्रज-जन बेहाल।।594।।