मथुरा आदि अनादि देह धरि आपुन आए।
धनि देवै बसुदेव पुत्र तुम माँगे पाए।
चारि बदन मैं कह कहौ, सहसानन नहिं जान।
गाइ चरावत ग्वाल संग करत नंद की आन।
जोगी जन अवराधि फिरत जिहिं ध्यान लगाए।
ते ब्रजवासिनि संग फिरत अति प्रेम बढ़ाए।
बृंदाबन ब्रज कौ महत कापै बरन्यौ जाइ।
चतुरानन पग परसि कै लोक गयौ सुख पाइ।
हरि लीला अवतार पार सारद नहिं पावै।
सतगुरु-कृपा-प्रसाद कछुक तातैं कहि आवै।
सूरदास कैसे कहै हरि-गुन कौ बिस्तार।
सेष सहस मुख रटत है तउ न पावै पार।।492।।