ब्रज कहा खोरी।
छत अरु अछत एक रस अंतर, मिटत नहीं कोउ करौ करोरी।।
बालक ही अभिलाषनि लीला, चकित भई कुल लाजनि छोरी।
विरुधविवेक गोपरस परि करि, बिरहसिधु मारत तै ओरी।।
जद्यपि हौ त्रैलोक के ईश्वर, परसि दृष्टि चितवत न बहोरी।
'सूरदास' प्रभु प्रीति रीति कत ते, तुम सबै रहे अब तोरी।। 3388।।