ब्रज-बनिता रबि कौं कर जोरैं।
सीत-भीति नहिं करतिं छहौं रितु, त्रिबिध काल जल खोरैं।।
गौरी-पति पूजतिं, तप साधतिं, करत रहतिं नित नेम।
भोग-रहित निसि जागि चतुर्दसि, जसुमति-सुत कैं प्रेम।।
हमकौं देहु कृष्न पति ईश्वर, और नहीं मन आन।
मनसा बाचा कर्म हमारैं, सूर स्याम कौं ध्यान।।782।।