ब्रजहिं बसैं आपुहिं बिसरायौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग जैतश्री


ब्रजहिं बसैं आपुहिं बिसरायौ।
प्रकृति पुरुष एकहि करि जानहु, बातनि भेद करायौ।।
जल थल जहाँ रहौं तुम बिनु, नहिं बेद उपनिषद गायौ।
द्वै-तन जीव-एक हम दोऊ, सुख-कारन उपजायौ।।
ब्रह्म-रूप द्वितिया नहिं कोऊ, तब मन तिया जनायौ।
सूर स्याम मुख देखि अलप हँसि, आनँद-पुंज बढ़ायौ।।1687।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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