बैठी कहा मदन मोहन कौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


बैठी कहा मदन मोहन कौ, सुंदर बदन बिलोकी।
जा कारन घूँघट पट अबलौ, अँखियाँ राखी रोकि।।
फबि रही मोरचंद्रिका माथै, छबि की उठति तरंग।
मनहुँ अमर-पति-धनुष बिराजत, नव जलधर कै संग।।
रुचिर चारु कमनीय भाल पर, कुकुमतिलक दिये।
मानहुँ अखिल भुवन की, सोभा राजति उदय किये।।
मनिमय जटित लोल कुंडल की, आभा झलकति गंड।
गनहुँ कमल ऊपर दिनकर की, पसरीं किरनि प्रचंड।।
भ्रकुटी कुटिल निकट नैननि कै, चपल होति इहि भाँति।
मनहुँ तामरस कै संग खेलत बाल भृंग की पाँति।।
कोमल स्याम कुटिल अलकावलि, ललित कपोलनि तीर।
मनहुँ सुभग इंदीवर ऊपर, मधुपनि की अति भीर।।
अरुन-अधर-नासिका-निकाई, बढ़त परस्पर होड़।
‘सूर’ सुमनसा भई पाँगुरी, निरखि डगमगे गोड़।।1821।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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