बिराजति एक अंग इति बात।
अपनै कर करि धरे बिधाता, षट् खग, नव जलजात।।
द्वै पतंग, ससि बीस, एक फनि, चारि बिबिध रँग धात।
द्वै पक बिब, बतीस बज्रकन, एक जलज पर थात।।
इक सायक, इक चाप चपल अति, चितवत चित्त विकात।
द्वै मृणाल, मालूर उभै, द्वै कदलि खभ बिनु पात।।
इक केहरि, इक हंस गुप्त रहै, तिनहि लग्यौ यह गात।
'सूरदास' प्रभु तुम्हरे मिलन कौ अति आतुर अकुलात।।2112।।