विरहिनि क्यौ धीरज मन धरै।
वह चितवनि, वह चलनि मनोहर, संत समाधि टरै।।
दसन बज्र दुति बदन, लाल मृदु, ससि गन पुंज हरै।
खंजन नैन किधौ अलि बारिज, कछू न समुझि परै।।
उज्ज्वल स्याम अरुन चंचलता, मुनि मन निरखि हरै।
'सूरदास' प्रभु देखि थकित भइ, को स्रुति सिंधु तरै।।3602।।