बिरहबन मिलनसुधि त्रास भारी।
नैन जल नदी, पर्वत उरज येइ मनु, सुभग बेनी भई अहिनि कारी।।
नैन मृग, स्रवन बनकूप जहँ तहँ मिले, भ्रुवगली सघन नहिं पार पावै।
सिंह कटि, व्याध्र अँग अस भूषन मनौ, दुसह भए भार अतिही डरावै।।
सरन कर अत्र हरि डर लहत कोउ नहिं, अंग सुख स्याम बिनु भए ऐसे।
'सूर्हू' प्रभु स्याम करुनाधाम जाउ क्यौ, कृपा मारग बहुरि मिलै कैसे।।2079।।