बिनु गुपाल वैरनि भई कुजै।
तब वै लता लगति तन सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।।
वृथा बहति जमुना, खग बोलत, वृथा कमल फूलनि अलि गुजै।
पवन, पान, घनसार, सजीवन, दधिसुत किरनि भानु भई भुजै।।
यह ऊधौ कहियौ माधौ सौ, मदन मारि कीन्ही हम लुजै।।
‘सूरदास’ प्रभु तुम्हरे दरस कौ, मग जोवत अँखियाँ भई छुजै।।4068।।