बिधि कैं आन बिधि कौ सोच।
निरखि छबि वृषभानु तनया, सकल मम कृत पोच।
रमा, गौरी, उर्वसी, रति, इंद्र-बधू समेत।
तूल दिन मनि कहा सारँग, नाहिं उपमा देत।
चरन निरखि, निहारि नख-छबि, अजित देख्यौ तोकि।
चित्त गुनि महिमा न जानत, धीर राखत रोकि।
सूर आन बिरंचि बिरच्यौ, भक्ति-निज-अवतार।
अबल के बल सबल देखि, अधीन सकल सिंगार।।706।।