बिछुरनि जनि काहू सौ होइ -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

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बिछुरनि जनि काहू सौ होइ।
बिछुरन भयौ राम सीता कौ, कम छत देखे धोइ।।
बिछुरन भयौ मीन अरु जल कौ, तलफि तलफि तन खोइ।
बिछुरन भयौ चकवा अरु चकई, रैनि गँवाई रोइ।।
रुदन करत बैठी बन महियाँ, बात न बूझत कोइ।
'सूरदास' स्वामी कौ बिछुरन, बनत उपाइ न कोइ।। 137 ।।

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