बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 99

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

16. यह है प्रेम-परिणाम

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भला मैं यह सब क्यों करने लगी?
और भी कहती थीं कि
मैं अपनी साड़ी फाड़-फड़कर लताओं पर डालती थी,
घर का सारा दूध-दही मैने मथुरा की ओर लुढ़का दिया।
अन्त में मेरे व्यवहार से तंग आकर मुझे रस्सियों से बाँध दिया।
अपने साथ नित्यकर्म कराकर फिर बाँध देती हैं,
यहीं भोजन दे जाती हैं,
बँधे ही बँधे किसी प्रकार पेट भर लेती हूँ।
प्राणप्यारे!
तुम मेरी व्यथा को भलीभाँति समझ सकते हो!
घायल की गति घायल जाने।
तुम भी तो एक दिन रस्सियों से बँधे थे।
किंतु आह!
कहाँ तुम्हारा बँधना, कहाँ मेरा?
तुम्हें जसोदा मैया ने
अपनी-वेणी की मुलायम रेशमी डोरी से बाँधा था,

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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