ऐ उदार हृदय वृक्षों!
तुमसे कहूँ मन की बात?
आह, तुम तो
अपने समस्त पत्तों को कँपाकर मना करने लगे।
अच्छा, अच्छा, तुम थर-थर मत काँपों,
मैं न कहूँगी।
तुम शायद समझ गये कि
मैं कन्हैया की ही बात कहती।
मै जानती हूँ,
तुमको कम दुःख थोड़े है।
अच्छा, तुम अपनी पीड़ा दबाये रहो,
मैं चली किसी दूसरे के पास।
कठोर पत्थर!
तुम अच्छे मिले।
तुम्हारा हृदय तो बड़ा कठोर है,
तुम बड़ी सुगमता से मेरे मन की बात सुन सकोगे।