बिना कहे काम न चलेगा।
भीतर ही भीतर हृदय छलनी हो जायगा।
चलूँ वनकी ओर,
वहाँ शायद कोई सुनने वाला मिल जाय!
सुकुमार पक्षियों! तुम मेरे मन की बात सुनोगे?
अरे, तुम तो फड़फड़ाकर उड़ चले।
चें-चें करके शायद तुम भी रो रहे हो।
ठहरो तो,
इतनी जल्दी मत भागो।
मेरी बात न सुनना,
कुछ देर बैठकर परस्पर नेत्रों द्वारा बात करें।
किंतु तुम क्यों मानने लगे!
हा विधाता! आज सभी मुझसे दूर भाग रहे हैं,
जैसे मेरे शरीर से लपट निकलकर
इनको भस्म कर देगी।
अच्छी बात है जाओ,
अपना क्या वश है।