धीरे-धीरे कहाँ चली आयी।
वही झाड़, वही पेड़-
सब कुछ वही;
किंतु आज इनमें कोई आकर्षण नहीं!
तो क्या लौट चलूँ?
लौट कर कहाँ जाऊँ?
वहीं कौन-सा सुख है?
उस पलँग से तो यहाँ की धूलि ही अच्छी।
यहीं थोड़ी देर क्यों न लेटूँ?
हाय, मैं यहाँ लेटी हूँ,
गोप-गोपी, गैया और जसोदा मैया का वह हाल;
और वह कान्हा कहाँ होंगे,
कूबरी के साथ?
तूने क्या किया कूबरी!
केवल अपने सुख के लिये इतने प्राणियों को तड़पा रही है।
क्या तुझको यह पता न चलो होगा कि
मुरलीमनोहर के विरह में व्रजवासी
किस प्रकार तड़प रहे हैं?