कैसे बोलें बेचारी,
मनमोहन को पाकर रूप-सिन्धु में डुबकियाँ लगा रहीं हैं।
बोलने की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता।
एक मैं ही बावरी हूँ जो बड़बड़ा रही हूँ।
यही कुन्ज कल कैसा लगता था,
पग-पग पर काँटे चुभते थे,
हरे-हरे कोमल पत्तों से लू निकलती थी,
लाल-लाल फल अंगारों की भाँति दिखायी पड़ते थे,
पतली-सी लता शरीर पर पड़ने से ऐसा मालूम होता था
मानो किसी ने कोड़ा मार दिया।
ऐ लताओं!
ऐ पत्तों!
अब कहो,
कहाँ गयी तुम्हारी वह तप्त लू?