बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 53

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

9. हाय, यह तो स्वप्न था

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कैसे बोलें बेचारी,
मनमोहन को पाकर रूप-सिन्धु में डुबकियाँ लगा रहीं हैं।
बोलने की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता।
एक मैं ही बावरी हूँ जो बड़बड़ा रही हूँ।
यही कुन्ज कल कैसा लगता था,
पग-पग पर काँटे चुभते थे,
हरे-हरे कोमल पत्तों से लू निकलती थी,
लाल-लाल फल अंगारों की भाँति दिखायी पड़ते थे,
पतली-सी लता शरीर पर पड़ने से ऐसा मालूम होता था
मानो किसी ने कोड़ा मार दिया।
ऐ लताओं!
ऐ पत्तों!
अब कहो,
कहाँ गयी तुम्हारी वह तप्त लू?

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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