बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 16

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

3. मेरी ही भूल थी

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मैं क्या समझती थी कि तुम्हारा जादू इतना सच्चा है।
उत्सुकतावश ही मैंने तुम्हें आधी दृष्टि से देखा था,
उतने में ही तुम्हारी सलोनी मूर्ति हृदय में बैठ गयी।
अपने को सँभालने की चेष्टा की,
न रहा गया;
फिर तुम्हारी ओर दृष्टि गयी,
तुमने मुसकरा दिया।
आह, वह मुस्कान क्या थी, एक माया थी।
आज भी वह प्रथम दिवस की मुस्कान नहीं भूलती।
सखियों की बात का स्मरण आया,
अपने अभिमान का भी ध्यान आया।
खाली घड़ा लेकर ही पीछे लौटने का विचार किया।
अभी मुड़ भी न पायी थी कि तुमने वंशी फूँक दी,
हृदय में विद्युत्-लहर-सी दौड़ गयी।
मैं ठिठक गयी।
घड़ा पृथ्वी पर रखकर बैठ गयी।
अभिमान जाता रहा।

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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