बावरी गोपी -प्रेम भिखारी पृ. 109

बावरी गोपी -प्रेम भिखारी

17. यही आशा तो बैरिन हो गयी

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किसी दूसरे के हृदय का भी कुछ मूल्य होता है?
अपनी इच्छा या अपना आनन्द ही सब कुछ नहीं होता!
सबका हृदय, हृदय है,
मिट्टी का खिलौना नहीं है, कि जब तक जी चाहा खेलते रहे
और जब जी चाहा पटककर चूर-चूर कर दिया।
प्राणेश!
तुम क्या जानो कि चूर-चूर हुआ हृदय कैसा होता है,
उसे किसी प्रकार दबाये रखना पड़ता है।
वह शरीर से सम्बन्ध तोड़कर बाहर निकलना चाहता है,
कहता है- जहाँ मेरा दुलार न हुआ, वहाँ रहने से क्या लाभ?
किंतु आहों का बाड़ा बाँधकर उसे घेरे हुए हूँ,
उसे जाने नहीं देती।
क्यों?
आश जो लगी है।
उसे समझाती हैं कि धीरज मत छोड़,
इतना मान भी मत कर।

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बावरी गोपी -प्रेम भिखारी
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. कल की बात 1
2. क्या मैं बावरी हूँ? 6
3. मेरी ही भूल थी 11
4. और कूक 18
5. कैसे थे वे दिन? 23
6. कल आयेंगे 29
7. रे भौंरे, मत गूँज 37
8. इस मक्खन का क्या करूँ? 44
9. हाय, यह तो स्वप्न था 52
10. कूबरी, तुझे धिक्कार है 58
11. कूबरी! तू धन्य है 64
12. कुछ न कहना 69
13. मैं भली कि मछली 75
14. कोई तो बताये 83
15. सुनाऊँ किसको मनकी बात 90
16. यह है प्रेम-परिणाम 98
17. यही आशा तो बैरिन हो गयी 105
18. बस, एक झलक 112
19. मैं तो चली पिया की डागरिया 119

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