बार-बार हरि कहत मनहिं मन, अबहिं रहे सँग चारत धैनु।
ग्वाल-बाल कोट कहूँ न देखों, टेरत नाउँ लेत दै सैनु।
आलस-गात जात मन मोहन, सोच करत, तनु नाहिंन चैनु।
अकनि रहत कहुँ, सुनत नहीं कछु, नहिं गो-रंभन बालक बैनु।
तृषावंत सुरभी बालक-गन, कालीदह अँचयौ जल जाइ।
निकसि आइ सब तट ठाढ़े भए, बैठि गए, जहँ-तहँ अकुलाइ।
बन-धन ढूँढ़ि स्याम तहँ आए, गो-सुत ग्वाल रहे मुरझाइ।
मन मैं ध्यान करत ही जान्यौ, काली उरग रह्यौ ह्याँ आइ।
गरुड़ त्रास करि आइ रह्यौ दुरि, अंतरजामी सब के नाथ।
अमृत दृष्टि भरि चितए सूर प्रभु, बोलि उठे गावत हरि गाथ।।501।।