बात यह तुमसौं कहत लजाउँ।
सुनि न जात घर घर कौ घैरा, काहूँ मुख न समाउँ।।
नर नारी सब यहै चलावत, राधा मोहन एक।
मातु पिता सुनि सुनि अति त्रासत, मैं इक वै जु अनेक।।
आपु जबै द्वारैं ह्वै निकसत, देखत सबै सुगात।
निंदत तुमहिं सुनावत मोकौं, सुनत न नैंकु सुहात।।
धिक नर, धिक नारी, धिक जीवन, तुमहिं बिमुख बिमुख धिक देह।
सूर स्याम यह कोउ न जानत, तन ह्वैहै जरि खेह।।1683।।