बाँसुरी दीजियै ब्रज नारी।
काल्हि सखि इहि ठौर बाँसुरी भूलि बिसारी।
तुम जु गई लै धाम बात हम सुनी तिहारी।।
तुम्हरै काम न आवई बसी हमरी देहु।
हम आतुर ह्वै माँगही तुम नहिं नाहि करेहु।।
बंसी कैसी होइ नैन भरि कबहुँ न देखी।
पिता तुम्हारे साधु कान्ह तुम भए विद्वेषी।।
इत उत खेलत तुम फिरौ कितहूँ भूलि ग़ई सु।
सौह खाति हौ बाबा की नाहिं जु नाहिं लई सु।।
बंसी हमरी देहु काहे कौ रारि बढ़ावौ।
समुझि बूझि मन माहिं काहे कौ लोग हँसावौ।।
लोग हँसै चरचा करै देखौ मनहि बिचारि।
यह बंसी ब्रजनाथ की देति, न काहैं गँवारि।।
हम सौ कहत गँवारि आपनी करत बडाई।
मारौ गुलचा गाल तबै बाबा की जाई।।
तुम से केतिक ग्वाल है हमसौ माँगत छाँछि।
फेंटि कमरिया काँध पै काहे दिखावत आछि।।
या बंसी कौ सार कहा तुम ग्वालिनि जानौ।
तीनलोक पटरानी मेरौ मन यासौ मानौ।।