बहुत दूर तुम, बहुत पास तुम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा के प्रेमोद्गार-श्रीकृष्ण के प्रति

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राग भैरवी - ताल कहरवा


बहुत दूर तुम, बहुत पास तुम, दूर-पास दोनों से दूर।
तुममें नित्य बसी मैं, मुझमें तुम सब ओर सदा भरपूर॥
एक-पृथक्‌ का प्रश्र बने तब, जब हो कभी भिन्न अस्तित्व।
एक रहस्यपूर्ण रसमय है नित्य अभिन्न सव-चित्तत्त्व॥
तब भी अनुभव करते दोनों दोनों का संयोग-वियोग।
मिलन परम अचिन्त्य सुख देता, अमिलन परम दुःख-संयोग॥
बढ़ती पल-पल मिलनाकांक्षा, जाती नित अनन्त की ओर।
रस-समुद्र शुचि बहने लगता, सहज छोड़ मर्यादा-छोर॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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