सरद सुहाई आई राति 4 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री


बलिहारी या राति की।
सुनु मोहन बिनती दै कान। अपजस होइ कियै अपमान।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
तुम हमकौं, उपदेस्यौ धर्म। ताकौ कछू न पायौ मर्म।।
हम अबला मतिहीन हैं।
दुख-दाता सुत-पति-गृह-बंधु। तुम्हरी कृपा बिनु सब जग अंधु।।
तुमतैं प्रीतम और को।
तुम सौं प्रीति करहिं जो धीर। तिनहिं न लोक बेद को पीर।।
पाप पुन्य तिनकैं नहीं।
आस-पास बंधीं हम बाल। तुमहिं बिमुख ह्वैहैं बेहाल।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
बिरद तुम्हारौ दीनदयाल। कर सौं कर धरि करि प्रतिपाल।।
भुज खंडनि खंडहु ब्यथा।
जैसैं गुनी दिखावै कला। कृपन कबहुं नहिं मानै भला।।
सदय हृदय हम पर करौ।
ब्रज की लाज बढा़ई तोहिं। करहु कृपा करूना करि जोहि।।
तुमहिं हमारैं गति सदा।
दीन बचन जब जुवतिनि कहे। सुनत स्रवन लोचन जल रहे।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
हँसि बोले हरि बोली ओड़ि। कर जोरे प्रभुता सब छोड़ि।।
हौं असाधु तुम साधु हौ।
मो कारन तुम भईं निसंक। लो‍क बेद बपुरा को रंक।।
सिंह सरन जंबुक बसै।
बिनु दमकनि हौं लीन्हौं मोल। करत निरादर भईं न लोल।।
आवहु हिलि मिलि खेलियै।
ब्रज-जुवतिनि घेरे ब्रजराज। मनहुं निसाकर किरनि-समाज।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
हरि-मुख देखत भूले नैन। उर उमँगे कछु कहत न बैन।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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