बरु मेरी परतिज्ञा जाउ।
इत पारथ कोप्यौ है हम पर, उत भीषम भट-राउ।
रथ तै उतरि चक्र कर लीन्हौं, सुभट सामुहैं आए।
ज्यौं कंदर तैं निकसि सिहं, झुकि, गज-जूथनि पर धाए।
आइ निकट श्रीनाथ निहारे, परी तिलक पर दीठि।
सीतल झई चक्र की ज्वाला, हरि हँसि दीन्ही पीठि।
जय-जय-जय चिंतामनि स्वामी, सांतनु-सुत यौं भाखै।
तुम बिनु ऐसौ कौन दूसरौ, जो मेरौ प्रन राखे।
साधु-साधु सुरसरी-सुवन तुम, नहिं प्रन लागि डराऊँ।
सूरजदास भक्त दोऊ दिसि, कापर चक्र चलाऊँ।।274।।