बरु ए बदरौ बरषन आए ।
अपनी अवधि जानि नँदनंदन, गरजि गगन घन छाए ।।
कहियत हैं सुरलोक बसत सखि, सेवक सदा पराए ।
चातक पिक कौ पीर जानि कै, तेउ तहाँ तै धाए ।।
द्रुम किए हरित हरषि बेली मिली, दादुर मृतक जिवाए ।
साजे निविड़ नीड़ तृन सँचि सँचि, पछिनहूँ मन भाए ।।
समुझति नही चूक सखि अपनी, बहुतै दिन हरि लाए ।
'सूरदास' प्रभु रसिक सिरोमनि, मधुबन बसि-बिसराए ।। 3308 ।।