बका बिदारि चले ब्रज कौं हरि।
सखा संग आनंद करत सब, अंग-अंग बन-धातु चित्र करि।
बनमाला पहिरावत स्यामहिं बार-बार अँकवार भरत धरि।
कंस निपात करौगे तुमहीं, हम जानी यह बात सही परि।
पुनि-पुनि कहत धन्य नंद जसुमति, जिनि इनकौं जनम्यौ सो धनि धरि।
कहत इहै सब जात सूर प्रभु, आनँद-आँसु ढरत लोचन भरि।।429।।