फिरत-फिरत बलहीन भयौ।
कहा करौं इहिं त्रास कृपानिधि, जप-तप कौ अभिमान गयौ।
घायो धर-सर-सैल, विदिसि-दिसि, चक्र तहाँ हूँ जाइ लयौ।
जाँचे सिव-विरंचि सुरपति सब, नैंकु न काहूँ सरन दयौ।
भाज्यौ फिरयौ लोक-लोकनि मैं, पत्र पुरातन पवन दयौ।
सूरदास द्विज दी जानि प्रभु, तब निज जन सनमुख पठयौ।।6।।