फागु रंग करि हरि रस राख्यौ 4 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
अक्रूर-ब्रज-आगमन


तिन पर क्रोध कहा मैं पाऊँ। रंगभूमि गज चरन रुँदाऊँ।।
मेरे समसरि कौ वै नाही। यह सुनि कै नारद मुसकाही।।
सत्य बचन नृप कहत पुकारे। अब जाने उन तौ तुम मारे।।
यह कहि मुनि बैकुंठ सिधारे। त्रिभुवन मैं को बलहि तुम्हारे।।
कंस परयौ मन इहै बिचारा। राम कृष्न वध इहै खंभारा।।
दनुज हृदै हरि इहै उपायौ। नारद कही सुनत मन आयौ।।
अब मारौ नहिं गहरु लगाऊँ। मथुरा जहाँ तहाँ बल छाऊँ।।
धकधकात जिय बहुरि सँभारै। क्यौ मारौ सो बुद्धि बिचारै।।
'सूरज' प्रभु अबिगत अबिनासी। कंस काल यह बुद्धि प्रकासी।।2922।।

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