फागु रंग करि हरि रस राख्यौ 2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
अक्रूर-ब्रज-आगमन


अकलकला, निगमहु तै न्यारे। तिन जुवती बन बननि बिहारे।।
अग्या इहै मोहिं प्रभु दीन्हौ। यह अवतार जबहिं प्रभु लीन्हौ।।
दैत्यदहन सुर के सुखकारी। अब मारौ प्रभु कंस प्रचारी।।
यह सुनि हँसे सुरनि के नाथा। जब नारद गाई यह गाथा।।
श्रीमुख कह्यौ जाइ समुझावहु। नृप आयसु करि मोहिं बुलावहु।।
अंजलि जोरि राजमुनि हर्षे। कृपा बचन तिनसौ हरि बर्षे।।
तुरत चले नारद नृप पासा। यहै बुद्धि मन करत प्रकासा।।
संकर्षन हिरदै प्रगटाई। जो बानी रिषि गए सुनाई।।
आदि पुरुष उद्दौत बिचारी। सेषरूप हरि के सुखकारी।।
अंतरजामी है जगताता। अनुज हेत जग मानत नाता।।
इहै बचन हलधर कहि भाष्यौ। सुनि सुनि स्रवन हृदय हरि राप्यौ।।
तुम जनमे भू भार उतारन। तुम हो अखिल लोक के तारन।।
तुम संसार सार के सारा। जल थल जहाँ तहाँ बिस्तारा।।
तब हँसि कही भ्रात सौ बानी। जो तुम कहत बात मैं जानी।।
कंस निकदन नाम कहाऊँ। केस गहौ भुव मैं घिसटाऊँ।।
इहि अंतर मुनि गए नृप पासा। मन मारे मुख करे उदासा।।
हरषि कंस मुनि निकट बुलायौ। आदर करि आसन बैठायौ।।
कैसौ मुख, क्यौ रिषि मन मारे। कह चिंता जिय बढ़ी तुम्हारै।।
नारद कह्यौ सुनौ हो राव। कह बैठे कछु करहु उपाव।।

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