फन-फन-प्रति निरतत नँद-नंदन।
जल-भीतर जुग जाम रहे कहूँ, मिट्यौ नहीं तन-चँदन।
उहै काछनी कटि, पीतांबर, सीस मुकुट अति सोहत।
मानौ गिरि पर मोर अनंदित, देखत ब्रज-जन मोहत।
अंवर थके अमर ललना सँग, जै-जै धुनि तिहुँ लोक।
सूर स्याम काली पर निरतन, आवत हैं ब्रज-ओक।।565।।