प्रेम सुधा सागर पृ. 99

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोदश अध्याय

Prev.png
ब्रह्मा जी का मोह और उसका नाश

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! तुम बड़े भाग्यवान हो। भगवान के प्रेमी भक्तों में तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है। तभी तो तुमने इतना सुन्दर प्रश्न किया है। यों तो तुम्हें बार-बार भगवान की लीला-कथाएँ सुनने को मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्ध में प्रश्न करके उन्हें और भी सरस और भी नूतन बना देते हो। रसिक संतों की वाणी, कान और हृदय भगवान की लीला के गान, श्रवण और चिन्तन के लिये ही होते हैं, उनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण-प्रतिक्षण भगवान की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहें। ठीक वैसे ही, जैसे लम्पट पुरुषों को स्त्रियों की चर्चा में नया-नया रस जान पड़ता है।

परीक्षित! तुम एकाग्र चित्त से श्रवण करो। यद्यपि भगवान की यह लीला अत्यन्त रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता हूँ। क्योंकि दयालु आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त रहस्य भी बतला दिया करते हैं। यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों को मृत्युरूप अघासुर के मुँह से बचा लिया। इसके बाद वे उन्हें यमुना जी के पुलिन पर ले आये और उनसे कहने लगे- ‘मेरे प्यारे मित्रों! यमुना जी का यह पुलिन अत्यन्त रमणीय है। देखो तो सही, यहाँ की बालू कितनी कोमल और स्वच्छ है। हम लोगों के लिए खेलने की तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है। देखो, एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं और उनकी सुगन्ध से खिंचकर भौंरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनि से सुशोभित वृक्ष इस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं। अब हम लोगों को यहाँ भोजन कर लेना चाहिए; क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हम लोग भूख से पीड़ित हो रहे हैं। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें।'

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः