प्रेम सुधा सागर पृ. 98

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वादश अध्याय

Prev.png

महायोगी गुरुदेव! मुझे इस आश्चर्यपूर्ण रहस्य को जानने के लिए बड़ा कौतूहल हो रहा है। आप कृपा करके बतलाइये। अवश्य ही इसमें भगवान श्रीकृष्ण की विचित्र घटनाओं को घटित करने वाली माया का कुछ-न-कुछ काम होगा। क्योंकि और किसी प्रकार ऐसा नहीं हो सकता। गुरुदेव! यद्यपि क्षत्रियोचित धर्म ब्राह्मण सेवा से विमुख होने के कारण मैं अपराधी नाममात्र का क्षत्रिय हूँ, तथापि हमारा अहोभाग्य है कि हम आपके मुखारविन्द से निरन्तर झरते हुए परम पवित्र मधुमय श्रीकृष्ण लीलामृत का बार-बार पान कर रहे हैं।

सूत जी कहते हैं - भगवान के परम प्रेमी भक्तों में श्रेष्ठ शौनक जी! जब राजा परीक्षित ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब श्री शुकदेव जी को भगवान की वह लीला स्मरण हो आयी और उनकी समस्त इन्द्रियाँ तथा अंतःकरण विवश होकर भगवान की नित्यलीला में खिंच गये। कुछ समय के बाद धीरे-धीरे श्रम और कष्ट से उन्हें बाह्यज्ञान हुआ। तब वे परीक्षित से भगवान की लीला का वर्णन करने लगे।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः