प्रेम सुधा सागर पृ. 96

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वादश अध्याय

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वे सोचने लगे कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिये? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्ट की मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकों की हत्या भी न हो? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं ?’ परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमान - सबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं। उसके लिये उह उपाय जानना कोई कठिन न था।

वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं उसके मुँह में घुस गये। उस समय बादलों में छिपे हुए देवता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुर के हितैषी कंस आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे। अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्रीकृष्ण को अपनी दाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्ण ने देवताओं की ‘हाय-हाय’ सुनकर उसके गले में अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया। इसके बाद भगवान ने अपने शरीर को इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला रूँध गया। आँखें उलट गयीं। वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा। सांस रुककर सारे शरीर में भर गयी और अन्त में उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोड़कर निकल गये। उसी मार्ग से प्राणों के साथ उसकी इन्द्रियाँ भी शरीर से बाहर हो गयीं। उसी समय भगवान मुकुन्द ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालों को जिला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुर के मुँह के बाहर निकल आये।

उस अजगर के स्थूल शरीर के एक अत्यन्त अद्भुत और महान ज्योति निकली, उस समय उस ज्योति के प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं। वह थोड़ी देर तक तो आकाश में स्थित होकर भगवान के निकलने की प्रतीक्षा करती रही। जब वे बाहर निकल आये, तब वह सब देवताओं के देखते-देखते उन्हीं में समा गयीं। उस समय देवताओं ने फूल बरसाकर, अप्सराओं ने नाचकर, गन्धर्वों ने गाकर, विद्याधरों ने बाजे बजाकर, ब्राह्मणों ने स्तुति-पाठकर और पार्षदों ने जय-जयकार के नारे लगाकर बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण का अभिनन्दन किया। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने अघासुर को मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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