प्रेम सुधा सागर पृ. 94

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वादश अध्याय

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ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगर का रूप धारण कर मार्ग में लेट गया। उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था। वह बहुत ही अद्भुत था। उसकी नीयत सब बालकों को निगल जाने की थी, इसलिए उसने गुफा से समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था। उसका नीचे का होंठ पृथ्वी से और ऊपर का होंठ बादलों से लग रहा था। उस के जबड़े कन्दराओं के समान थे और दाढ़े पर्वत के शिखर-सी जान पड़ती थीं। मुँह के भीतर घोर-अन्धकार था। जीभ एक चौड़ी लाल सड़क-सी दीखती थी। सांस आँधी के सामान थी और आँखें दावानल के समान दहक रही थीं।

अघासुर का ऐसा रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृन्दावन की कोई शोभा है। वे कौतुहलवश खेल-ही-खेल में उत्प्रेक्षा करने लगे कि यह मानो अजगर का खुला हुआ मुँह है। कोई कहता - 'मित्रो! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा है, यह हमें निगलने के लिए खुले हुए किसी अजगर के मुँह-जैसा नहीं है?’

दूसरे ने कहा - ‘सचमुच सूर्य की किरणें पड़ने से ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों ठीक-ठीक उसका ऊपरी होंठ ही हो। और इन्हीं बादलों की परछाईं से यह जो नीचे की भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वही इसका नीचे का होंठ जान पड़ता है।'

तीसरे ग्वाल बालक ने कहा - ‘हाँ, सच तो है। देखो तो सही, क्या ये दायीं और बायीं ओर की गिरी-कन्दराएँ अजगर के जबड़ों की होड़ नहीं करतीं? और ये ऊँची-ऊँची शिखर पंक्तियाँ तो साफ़-साफ़ इसकी दाढ़े मालूम पड़ती हैं।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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