प्रेम सुधा सागर पृ. 73

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वादश अध्याय

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बहुत-से ग्वालबाल तो नदी के कछार में छपका खेल रहे हैं और उसमें फुदकते हुए मेंढ़कों के साथ स्वयं भी फुदक रहे हैं। कोई पानी में अपनी परछाईं देखकर उसकी हँसी कर रहे हैं, तो दूसरे शब्द की प्रतिध्वनि को ही बुरा-भला कह रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ज्ञानी संतों के लिए स्वयं ब्रह्मानंद के मूर्तिमान अनुभव हैं। दास्य भाव से युक्त भक्तों के लिए वे उनके आराध्य देव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं और माया-मोहित विषयान्धों के लिए वे केवल एक मनुष्य-बालक हैं।

उन्हीं भगवान के साथ वे महान पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरह के खेल-खेल रहें हैं। बहुत जन्मों तक श्रम और कष्ट उठाकर उन्होंने अपनी इन्द्रियों और अंतःकरण को वश में कर लिया है, उन योगियों के लिए भी भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की रज अप्राप्य है। वही भगवान स्वयं जिन ब्रजवासी ग्वालबालों की आँखों के सामने रहकर सदा खेल खेलते हैं, उनके सौभाग्य की महिमा इससे अधिक क्या कही जाय।

परीक्षित! इसी समय अघासुर नाम का महान दैत्य आ धमका। उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालों की सुखमयी क्रीडा देखी न गयी। उसके हृदय में जलन होने लगी। वह इतना भयंकर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवन की रक्षा करने के लिए चिन्तित रहा करते थे और इस बात की बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाय। अघासुर पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा था। वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालों को देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे सगे भाई और बहिन को मारने वाला है। इसलिए आज मैं इन ग्वालबालों के साथ इसे मार डालूँगा। जब से सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनों के मृत तर्पण की तिलांजलि बन जायँगे, तब ब्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे। सन्तान ही प्राणियों के प्राण हैं। जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा? इसकी मृत्यु से ब्रजवासी अपने-आप मर जायँगे।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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