प्रेम सुधा सागर पृ. 72

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वादश अध्याय

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अघासुर का उद्धार

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वन में ही कलेवा करने के विचार से बड़े तड़के उठ गये और सिंगी बाजे की मधुर मनोहर ध्वनि से अपने साथी ग्वालबालों को मन की बात जनाते हुए उन्हें जगाया और बछड़ों को आगे करके वे ब्रज मण्डल से निकल पड़े। श्रीकृष्ण के साथ ही उनके प्रेमी सहस्रों ग्वालबाल सुन्दर छीके, बेंत, सिंगी और बाँसुरी लेकर तथा अपने सहत्रों बछड़ों को आगे करके बड़ी प्रसन्नता से अपने-अपने घरों से चल पड़े। उन्होंने श्रीकृष्ण के अगणित बछड़ों में अपने-अपने बछड़े मिला दिये और स्थान-स्थान पर बालोचित खेल खेलते हुए विचरने लगे। यद्यपि सब-के-सब ग्वालबाल काँच, घुँघची, मणि और सुवर्ण के गहने-पहने हुए थे, फिर भी उन्होंने वृन्दावन के लाल-पीले-हरे फलों से, नयी-नयी कोंपलों से, गुच्छों से, रंग-बिरंगे फूलों और मोरपंखों से तथा गेरू आदि रंगीन धातुओं से अपने को सजा लिया। कोई किसी का छीका चुरा लेता, तो कोई किसी की बेंत या बाँसुरी। जब उन वस्तुओं के स्वामी को पता चलता, तब उन्हें लेनेवाला किसी दूसरे के पास दूर फ़ेंक देता, दूसरा तीसरे के और तीसरा और भी दूर फ़ेंक देता। फिर वे हँसते हुए उन्हें लौटा देते।

यदि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण वन की शोभा देखने के लिए कुछ आगे बढ़ जाते, तो ‘’पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा’ - इस प्रकार आपस में होड़ लगाकर सब-के-सब उनकी ओर दौड़ पड़ते और उन्हें छू-छूकर आनन्दमग्न हो जाते। कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो कोई सिंगी ही फूँक रहा है। कोई-कोई भौरों के साथ गुनगुना रहे हैं, तो बहुत-से कोयलों के स्वर में स्वर मिलाकर ‘कुहू-कुहू’ कर रहे हैं। एक ओर कुछ ग्वालबाल आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की छाया के साथ दौड़ लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ हंसों की चाल की नक़ल करते हुए उनके साथ सुन्दर गति से चल रहे हैं। कोई बगुले के पास उसी के समान आँख मूँदकर बैठ रहे हैं, तो कोई मोरों को नाचते देख उन्हीं की तरह नाच रहे हैं। कोई-कोई बंदरों की पूँछ पकड़कर खींच रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ इस पेड़ से इस पेड़ पर चढ़ रहे हैं। कोई-कोई उनके साथ मुँह बना रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ एक डाल से दूसरी डाल पर छलांग लगा रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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