प्रेम सुधा सागर पृ. 62

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
दसवाँ अध्याय

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ये दोनों यक्ष वारुणी मदिरा का पान करके मतवाले और श्रीमद से अंधे हो रहे हैं। अपनी इन्द्रियों के अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट यक्षों का अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेर के पुत्र होने पर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बात का भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धडंग हैं। इसलिए ये दोनों अब वृक्ष योनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्ष योनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का सानिध्य प्राप्त होगा और फिर भगवान के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आयेंगे।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - देवर्षि! नारद इस प्रकार कहकर भगवान नर-नारायण के आश्रम पर चले गये।[1]नलकूबर और मणिग्रीव - ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्ध हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारद की बात सत्य करने के लिए धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे। भगवान ने सोचा कि ‘देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेर के लड़के हैं। इसलिए महात्मा नारद ने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूप में पूरा करूँगा।’[2] यह विचार करके भगवान श्रीकृष्ण दोनों वृक्षों के बीच में घुस गये।[3] वे तो दूसरी ओर निकल गये, परन्तु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया। दामोदर भगवान श्रीकृष्ण की कमर में रस्सी कसी हुई थी। उन्होंने अपने पीछे लुढ़कते हुए ऊखल को ज्यों ही तनिक ज़ोर से खींचा, त्यों ही पेड़ों की सारी जड़ें उखड़ गयीं।[4] समस्त बल-विक्रम के केन्द्र भगवान का तनिक-सा ज़ोर लगते ही पेड़ों के तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ता काँप उठा और वे दोनों बड़े ज़ोर से तड़तड़ाते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

    1. शाप वरदान से तपस्या क्षीण होती है। नलकूबर-मणिग्रीव को शाप देने के पश्चात् नर-नारायण-आश्रम की यात्रा करने का यह अभिप्राय है कि फिर से तपःसंचय कर लिया जाय।
    2. मैंने यक्षों पर जो अनुग्रह किया है, वह बिना तपस्या के पूर्ण नहीं हो सकता है, इसलिये।
    3. अपने आराध्यदेव एवं गुरुदेव नारायण के सम्मुख अपना कृत्य निवेदन करने के लिये।
  1. भगवान श्रीकृष्ण अपनी कृपा दृष्टि से उन्हें मुक्त कर सकते थे। परन्तु वृक्षों के पास जाने का कारण यह है कि देवर्षि नारद ने कहा था तुम्हें वासुदेव का सान्निध्य प्राप्त होगा।
  2. वृक्षों के बीच में जाने का आशय यह है कि भगवान जिसके अन्तर्देश में प्रवेश करते हैं, उसके जीवन में क्लेश का लेश भी नहीं रहता। भीतर प्रवेश किये बिना दोनों का एक साथ उद्धार भी कैसे होता।
  3. जो भगवान के गुण (भक्त-वत्सल आदि सगुण या रस्सी) से बँधा हुआ है, यह तिर्यक गति (पशु-पक्षी या टेढ़ी चाल वाला) ही क्यों न हो - दूसरों का उद्धार कर सकता है। अपने अनुयायी के द्वारा किया हुआ काम जितना यशस्कर होता है, उतना अपने हाथ से नहीं। मानो यही सोचकर अपने पीछे-पीछे चलने वाले ऊखल के द्वारा उनका उद्धार करवाया।

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