प्रेम सुधा सागर पृ. 60


श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
दसवाँ अध्याय

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नारद जी ने कहा- जो लोग अपने प्रिय विषयों का सेवन करते हैं, उनकी बुद्धि को सबसे बढ़कर नष्ट करने वाला है श्रीमद - धन सम्पत्ति का नशा। हिंसा आदि रजोगुणी कर्म और कुलीनता आदि का अभिमान भी उससे बढ़कर बुद्धिभ्रंशक नहीं है; क्योंकि श्रीमद के साथ-साथ तो स्त्री, जुआ और मदिरा भी रहती है। ऐश्वर्यमद और श्रीमद से अंधे होकर अपनी इन्द्रियों के वश में रहने वाले क्रूर पुरुष अपने नाशवान शरीर को तो अजर-अमर मान बैठते हैं और अपने ही जैसे शरीर वाले पशुओं की हत्या करते हैं। जिस शरीर को ‘भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देव’ आदि नामों से पुकारते हैं - उसकी अन्त में क्या गति होगी? उसमें कीड़े पड़ जायँगे, पक्षी खाकर उसे विष्ठा बना देंगे या वह जलकर राख का ढेर बन जायगा। उसी शरीर के लिये प्राणियों से द्रोह करने में मनुष्य अपना कौन-सा स्वार्थ समझता है? ऐसा करने में तो उसे नरक की ही प्राप्ति होगी। बतलाओ तो सही, यह शरीर किसकी सम्पत्ति है? अन्न देकर पालने वाले की है या गर्भाधान अक्राने वाले पिता की? यह शरीर उसे नौ महीने पेट में रखने वाली माता का है अथवा माता को पैदा करने वाले नाना का? जो बलवान पुरुष बलपूर्वक इससे काम करा लेता है, उसका है अथवा दाम देकर खरीद लेने वाले का? चिता की जिस धधकती आग में यह जल जायगा, उसका है अथवा जो कुत्ते-स्यार उसको चीथ-चीथकर खा जाने की आशा लगाये बैठे हैं, उनका? जो दुष्ट श्रीमद से अंधे हो रहे हैं, उनकी आँखों में ज्योति डालने के लिए दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है; क्योंकि दरिद्र यह देख सकता है कि दूसरे प्राणी भी मेरे ही जैसे हैं ।

जिसके शरीर में एक बार काँटा गड़ जाता है, वह नहीं चाहता कि किसी भी प्राणी को काँटा गड़ने की पीड़ा सहनी पड़े; क्योंकि उस पीड़ा और उसके द्वारा होने वाले विकारों से वह समझता है कि दूसरे को भी वैसी ही पीड़ा होती है। परन्तु जिसे कभी काँटा गड़ा ही नहीं, वह उसकी पीड़ा का अनुमान नहीं कर सकता। दरिद्र में घमण्ड और हेकड़ी नहीं होती; वह सब तरह के मदों से बचा रहता है। बल्कि देववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिए एक बहुत बड़ी तपस्या भी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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